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३० दिसंबर, १९६७ (प्रासंगिक)
यह एक मजेदार अनुभव है : कैसे वही क्रियाएं, वही कार्य, वही अवलोकन, दूर और नजदीकके वातावरणके
साथ वही संबंध मनमें बुद्धिके
दुरा और चेतनामें अनुभूतिके
दुरा आते है । शरीर
अब बुद्धिके मानसिक शासनके स्थानपर चेतनाके आध्यात्मिक
शासनको लाना सखि रहा है । (यह
यूं तो कुछ नहीं दिखता, शायद तुम्हारा ध्यान भी न जाय)
इससे बहुत बड़ा फर्क पड़ता है, यहांतक कि इससे शरीरकी संभावनाएं सोगुनी हों जाती
हैं... । जब शरीर नियमोंके आधीन होता है, वे चाहे विस्तृत हों, और चाहे वे व्यापक
क्यों न हों, वह इन नियमोंका दास रहता है और उसकी संभावनाएं इन नियमोंमें सीमित
रहती है । त्वेकिन जब उसपर 'आत्मा' और 'चेतना' का राज होता है तो उसमें अतुलनीय
संभावना और नम्यता आ जाती है और यही चीज उसे दीर्घायुष्य करनेकी, जीवन- की अवधि
बढ़ानेकी क्षमता देगी : इसका अर्थ है मनके बौद्धिक प्रशासनकी जगह 'आत्मा' के,
'चेतना' के प्रशासनको, 'चेतना'को बिठाना । बाहरसे इसमें कोई विशेष फर्क
नहीं दिखायी
देता, लेकिन... मेरा अनुभव है (क्योंकि अब मेरा शरीर बुद्धिका या मानसका कहा
नहीं
मानता -- एकदम नहीं -- उसकी समझमें नहीं आता 'कि यह कैसे हों सकता है), वह अधिकाधिक
और ज्यादा-सें-ज्यादा अच्छे रूपमें दिव्य चेतनाके पथ-प्रदर्शन, उसकी प्रेरणाका
अनुसरण करता है । और तब वह देखता है, प्रायः हर क्षण देखता है कि इससे कितना
बड़ा
फर्क पड़ा है.. । उदाहरणके लिये समय अपना मूल्य, निश्चित मूल्य खो बैठा है, ठीक वही चीज कम समयमें या अधिक समयमें की जा सकती है । आवश्यकताएं मी अपना अधिकार खो बेटी है । व्यक्ति अपने-आपको इस या उसके अनुकूल बना सकता है । हम कह सकते हैं कि समस्त विधान, प्रकृतिके समस्त विधान अपना एकाधिकार (वों चुके हैं । अब चीज पहले जैसी नहीं है । इतना काफी है कि वह हमेशा, हमेशा लचीला, जाग्रत् और... (अगर उसका अस्तित्व है) दिव्य चेतनाके प्रभावके प्रति संवेदनशील हों -- सर्वशक्तिमान चेतनाके प्रति -- ताकि असामान्य नमनीयताके साथ सबमेंसे गुजर सके ।
यह खोज अधिकाधिक की जा रही है । यह अद्भुत है, है न, अद्भुत खोज है ।
यह सभी अनिवार्यताओंपर उत्तरोत्तर विजय है । इस प्रकार स्वभावत: प्रकृतिके सभी विधान, सभी मानव विधान, सभी आदतें, सभी नियम, सदी लचीले होना शुरू करते हैं और अंतमें गायब हो जाते हैं । फिर मी, व्यक्ति एक ऐसी लय रख सकता है जो क्रियाको सरल बना दे -- वह लचीलेपनके विरुद्ध नहीं होती । कार्यान्वयनमें, अनुकूलनमें जो लचीलापन आता है वह सब कुछ बदल देता है । स्वस्थ वृत्तकी दृष्टिसे, स्वास्थ्यकी दृष्टिसे, संगठनकी दृंष्टिसे, औरोंके साथ संबंधकी दृष्टिसे इन सबकी आक्रमणशीलता चली गयी (स्वस्थ चित्त होना ही काफी है, चित्त संतुलित और शांत होनेसे ही इन सबकी आक्रमणशीलता चली जाती है), बल्कि साथ ही निरंकुशता, अनिवार्यताका शासन, आदि सब-के-सब चले गये हैं ।
तो हम देखते है : जैसे-जैसे प्रक्रिया अधिकाधिक पूर्ण होती जाती है -- पूर्णका मतलब है समग्र, समूचा, जिसमें कुछ मी पीछे छूट न जाय -- यह निश्चित और अनिवार्य रूपसे मृत्युपर विजय होती है । इसका यह मतलब नहीं है कि कोषाणुओंका विलयन, जो मृत्युका प्रतीक होता है, नहीं रहता । लेकिन वह तभी रहेगा जब वह जरूरी हों, एक निरपेक्ष नियमके रूपमें नहीं, जब जरूरी हों तो एक प्रक्रियाके रूपमें ।
और सबसे बढ़कर यह : 'मन' जिन चीजोंको कठोर, निरंकृउश और लगभग अपराजेय रूपमें लाया है... वे सब गायब हो जायगी । और यह सब सिर्फ परम शक्तिको परम चेतनाके सुपुर्द कर देनेसे हो जायगा ।
शायद जब प्राचीन द्रष्टा प्रकृतिकी शक्ति पुरुषके अर्पण करनेकी, उसे प्रकृतिसे पुरुषमें स्थानान्तरित करनेकी बात कहते थे तो शायद यही मतलब होता था । शायद वे इसी बातको यूं कहते थे ।
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